व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> मुश्किलें हमेशा हारती हैं... मुश्किलें हमेशा हारती हैं...रॉबर्ट शुलर
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सफल लोगों का रहस्य क्या है ? आख़िर वे मुश्किलों को कैसे हरा देते हैं, जबकि बाकी लोग उनके सामने हार जाते हैं...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सफल लोगों का रहस्य क्या है ? आख़िर वे मुश्किलों को कैसे हरा देते हैं,
जबकि बाक़ी लोग उनके सामने हार जाते हैं ? वे आसमान में कैसे उड़ पाते
हैं, जबकि दूसरे डूब जाते हैं ?
रॉबर्ट शुलर के अनुसार, जीतने और हारने वालों के बीच सिर्फ़
‘संभावनापूर्ण चिंतन’ का फ़र्क होता है। जीतने वाले
सपने देखने की हिम्मत करते हैं। वे उनके प्रति संकल्पवान होते हैं। वे
कोशिश करने का जोखिल लेते हैं। उन्हें विश्वास होता है कि
‘सफलता संयोग से नहीं, मेहनत और लगन से मिलती है।’ वे
समझते हैं कि असफलता सिर्फ़ एक घटना है और एक बार असफल होने का मतलब हमेशा
के लिये असफल होना नहीं है। वे कभी मैदान नहीं छोड़ते।
इस अंतर्राष्ट्रीय बेस्टसेलर में डॉ. रॉबर्ट शुलर ‘संभावनापूर्ण
चिंतन’ के अपने दर्शन को सफलता की कार्ययोजना का रूप देते हैं
और यह बताते हैं कि किस तरह आपके सपनों को हक़ीक़त में, असफलताओं को
अवसरों में और छोटी सफलताओं को बड़ी सफलताओं में बदला जाये।
1
मुश्किलें हमेशा हारती हैं...
1982 की बात थी। भीषण गर्मी का मौसम था, कई लोगों को ऐसा लग रहा था, जैसे
समय पीछे चला गया है और 1930 का भयानक मंदी वाला दशक लौट आया है। एक के
बाद एक कंपनियाँ खुद को दिवालिया घोषित कर रही थीं। बेरोज़गारी बढ़ रही
थी। मीडिया इसे ‘‘गंभीर और लंबी
मंदी’’ की संज्ञा दे रहा था, क्योंकि पूरे अमेरिका
में मंदी का दौर फैला हुआ था।
राजनेताओं ने देश की बुरी स्थिति का इस्तेमाल अपने लाभ के लिये किया। इसने उन्हें बहुत बड़ा मौक़ा दिया, ताकि वे अपने विरोधी राजनीतिक दल की असफलतायें, कमियाँ और ग़लतियाँ गिना सकें। डेमोक्रेट्स ने इसे सत्ताधारी रिपब्लिकन पार्टी को दोष देने के अवसर के रूप में देखा। जैसी की संभावना थी, बदले में रिपब्लिकन ने ‘‘डेमोक्रेट प्रशासन’’ पर दोष मढ़ा, ‘‘जिसने समस्या पैदा की थी।’’ उनका कहना था कि रिपब्लिकन सरकार को यह समस्या विरासत में मिली है।
हर व्यक्ति समस्या के लिये दूसरों को दोष दे रहा था–कोई भी समस्या को दूर नहीं कर रहा था !
समस्याएं बनी रहीं। वे बढ़ती गईं। मंदी पूरे देश में तेज़ रफ़्तार से फैली, जब तक कि हर आदमी इसकी चपेट में नहीं आ गया। कोई भी इससे नहीं बच पाया।
क्रिस्टल कैथेड्रल धर्मसमुदाय के धर्मगुरु और नेशनल टेलीविज़न मिनिस्ट्री के प्रमुख होने के नाते व्यक्तिगत रूप से मैंने भी इसे झेला। हमारी टेलीविज़न धर्मसेवा हर सप्ताह 169 टेलीविज़न स्टेशनों पर प्रसारित हो रही थी। हमारे लिए पाँच सौ व्यक्ति काम करते थे, जिन्हें हम तनख़्वाह देते थे और हमारा सालाना बजट दो करोड़ डॉलर से अधिक था। हमारे काम की लागत नाटकीय रूप से लगातार बड़ने लगी। बाक़ी अमेरिकावासियों की तरह हम भी आर्थिक मुश्किलों के दौर का सामना कर रहे थे।
कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि देश के सामने समस्याएं थीं। परंतु सबसे बड़ी समस्या इस आर्थिक समस्या के प्रति हमारे नज़रिये की थी। नकारात्मक नज़रिया प्लेग की तरह समाज के हर वर्ग में फैल गया। नकारात्मक चिंतन के संक्रमण से ख़ुद को सुरक्षित रख पाना आसान नहीं था, क्योंकि नकारात्मक बातें हर तरफ़ थीं–मित्रों तथा अजनबियों से बातचीत में, टेलीविज़न और रेडियो समाचारों में।
नकारात्मक चिंतन जंगल में आग की तरह फैला, क्योंकि मंदी के दौर में नकारात्मक प्रतिक्रिया करने की प्रवृत्ति होती है। एक बार जब कोई जीव, व्यवसाय, जीवन या देश नकारात्मक चिंतन के संक्रमण का शिकार हो जाता है, तो फिर वह संक्रमण मस्तिष्क, हृदय तथा आत्मा को दीमक की तरह कुतरता रहता है और अंततः यह दीमक भावनात्मक समर्थन तंत्र को चट कर जाती है।
इसी राष्ट्रीय मनोदशा के माहौल में मैं शिकागो के हिल्टन होटल पहुँचा। मुझे वहाँ पर एक बड़े जनसमुदाय के सामने प्रेरणादायी भाषण देना था।
प्रेरणादायी भाषण देना तथा सफल प्रबंधन के सिद्धांत बताना मेरे लिए नई बात नहीं थी। हर साल मैं अमेरिका के इस छोर से उस छोर तक यात्रा करता हूँ और डॉक्टरों, एक्ज़ीक्यूटिव्ज़, शिक्षाविदों आदि के सामने सौ से अधिक भाषण देता हूँ।
बहरहाल, मैं यहाँ भाषण देने के विचार से ख़ासा उत्साहित था। मेरे श्रोता कृषि उद्योग के सदस्य थे। यह उद्योग आयोवा, मिशिगन, इलिनॉय और मिनेसोटा के मध्य-पश्चिमी राज्यों के कृषि व्यवसाय में संलग्न लोगों का प्रतिनिधित्व करता था। चूँकि मैं आयोवा के किसान परिवार में पैदा हुआ था और पला-बढ़ा था, इसलिये मैं इस भाषण को उन लोगों के साथ रिश्ते की डोर जोड़ने के अवसर के रूप में देख रहा था, जो उसी मिट्टी से आये थे, जिसे मैंने चालीस साल पहले छोड़ा था।
गंभीर दिखने वाले दो लोगों ने भावनात्मक और प्रेरणादायी शाम की मेरी आशा पर तत्काल पानी फेर दिया। उनके काले कॉलर पर सम्मेलन के बिल्ले लगे थे, जिनसे मुझे पता चला कि मुझे इन्हीं लोगों की तलाश थी। उन्होंने दबी आवाज़ से मेरा स्वागत किया, ‘‘डॉ. शुलर ? आने के लिये धन्यवाद।’’
उनके शब्द सुनकर मुझे वे हज़ारों मौक़े याद आ गये, जब मैं किसी विपत्ति या दुर्घटना के वक़्त पहुँचा था। अस्पतालों, मुर्दाघरों, अदालतों और क़ब्रिस्तानों में मैंने ये शब्द सुने हैं, ‘‘आने के लिये धन्यवाद।’’ मैं यह महसूस किये बिना नहीं रह सका कि मैं किसी प्रेरणादायी सम्मेलन के बजाय किसी दुर्घटना स्थल पर आ गया था।
उन दोनों में से कम उम्र का व्यक्ति बोला, ‘‘साढ़े तीन हज़ार लोग आपका भाषण सुनने का इंतज़ार कर रहे हैं।’’
उसका साथी बीच में बोला, ‘‘ये लोग मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं। वे आपकी मज़ेदार कहानियाँ नहीं सुनना चाहते। वे आपको मुँह फाड़कर हँसते हुए नहीं देखना चाहते, जैसा आप अपने टी.वी. प्रोग्राम में करते हैं। वे यह नहीं चाहते कि आप उनकी पीठ थपथपाकर यह खोखला वायदा करें कि ‘सब कुछ ठीक हो जायेगा।’’
इसके बाद वे दोनों एक-दूसरे से सटकर मेरे सामने इस तरह खड़े हो गये, मानो वे मुझे मंच पर पहुँचने से रोकना चाहते हों। पहला आदमी बोला, ‘‘यह सही है, डॉ. शुलर। इन लोगों के खेत छिन रहे हैं। इनके व्यवसाय दिवालिया हो रहे हैं। इनके विवाह और परिवार पर भयानक दबाव पड़ रहा है। इन्हें मदद की ज़रूरत है। और बाक़ी किसी भी चीज़ से ज़्यादा ज़रूरत इन्हें आशा की है। कृपया इन्हें आशा प्रदान करें।’’
यह सलाह देने के बाद उन्होंने ध्वनि-प्रबंधक की तरफ़ इशारा किया, जिसने मेरे सूट में माइक्रोफ़ोन लगाया। इसी समय मुझे सुनाई दिया कि पतली दीवार के उस पार मंच पर मेरा परिचय दिया जा रहा था, ‘‘देवियों और सज्जनो, यह मेरा सौभाग्य है कि मैं आज के हमारे मुख्य वक्ता का परिचय दूँ। वे हैं डॉ. रॉबर्ट शुलर, विश्वप्रसिद्ध क्रिस्टल कैथेड्रल के धर्मगुरु। यह सुंदर इमारत दो करोड़ डॉलर की लागत से बनी थी और इसे लगभग कर्ज़-मुक्त समर्पित किया गया। कोई भी धर्मगुरु या धर्मोपदेशक अमेरिका या दुनिया के इतने अधिक लोगों को संबोधित नहीं करता, जितना गार्डन ग्रव, कैलिफ़ोर्निया के डॉ. रॉबर्ट शुलर करते हैं। मुझे डॉ. रॉबर्ट शुलर का स्वागत करने में ख़ुशी हो रही है, जो विश्व के सर्वाधिक सफल व्यक्तियों में से एक हैं। आइये, तालियों से उनका स्वागत करें !’’
ज़ोरदार तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैं मंच पर चढ़ा और निराश लोगों के समूह के सामने खड़ा हो गया। साढ़े तीन हज़ार लोग अपनी जगह पर खड़े होकर मेरे स्वागत में तालियाँ बजा रहे थे। बड़ा हॉल खचाखच भरा था।
मन ही मन मैं काँप रहा था। जिस भाषण को मैंने जतन से तैयार किया था, वह अब बेकार हो चुका था। जिन तीन चुटकुलों को मैंने अपने आनंद और ‘‘श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने’’ के लिये तैयार किया था, वे अब किसी काम के नहीं थे।
मैं मंच पर चहलक़दमी करने लगा और मुझे ज़रा भी पता नहीं था कि मैं इन परेशान लोगों से क्या कहूँगा। मैं मंच के इस छोर से उस छोर तक चुपचाप टहलता रहा और अपने विचार एकत्रित करने की कोशिश करता रहा। मैंने श्रोताओं की आँखों में देखा। मुझे वे शब्द याद आ गये, जो मेरा स्वागत करने वाले लोगों ने कहे थे। मैंने फ़ैसला किया कि मैं एक सवाल पूछकर अपनी स्थिति सुदृढ़ करूँ।
‘‘मुझे बताया गया है कि आप मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं। क्या यह सही है ?’’
इस सवाल ने मुझे विचारों को तरतीब से जमाने के लिये थोड़ा सा समय दे दिया। इस तरह का छोटा सा विराम किसी सार्वजनिक वक्ता की जिंदगी बचा सकता है।
मैं इधर से उधर टहलता रहा और यह अभिनय करता रहा कि मुझमें अच्छी तरह से तैयार वक्ता का आत्मविश्वास था।
मुझे दिख रहा था कि मेरे शुरुआती सवाल ने श्रोताओं का ध्यान खींच लिया था–शायद मेरे उन तीन मज़ेदार चुटकुलों से भी अधिक, जिन्हें मैंने सावधानी से तैयार किया था और जो मेरी जेब में रखे थे।
उसके बाद मैंने दिल से भाषण दिया। इसमें कई नये विचार उभरकर आये। मैं दिल से इन लोगों की मदद करना चाहता था, उनके मन में आशा जगाना चाहता था, इसलिये मैंने इन लोगों की तात्कालिक समस्याओं तक ही सीमित रहने का फ़ैसला किया। ये लोग उस उद्योग के सदस्य थे, जो हमारे देश की सेहत और कल्याण के लिए अनिवार्य था। यह उद्योग अमेरिका के ब्रेडबास्केट का हृदय था। बाज़ारों में और हमारे घर की मेज़ों पर रखा भोजन इन्हीं किसानों की कड़ी मेहनत और बुद्धि की बदौलत आता था।
मुझे बरसों पहले का वह समय याद आया, जब मुझे होप कॉलेज, हॉलैंड, मिशिगन की स्नातक कक्षाओं में सार्वजनिक संभाषण, भाषण, वादविवाद आदि का प्रशिक्षण दिया गया था। इसके बाद वेस्टर्न थियोलॉजिकल सेमिनरी में भी मुझे प्रवचन तैयार करने का प्रशिक्षण मिला था। मैं जानता था कि सबसे प्रभावशाली भाषण प्रवचन नहीं, प्रमाण होता है। मूलभूत रूप से इस सिद्धांत का अर्थ है : अगर आपका भाषण तैयार नहीं है, तो आप हमेशा अपनी कहानी बता सकते हैं।
अगर आपके जीवन में रोमांच, चुनौती, संकट और संकल्प के पल रहे हैं, तो उनके बारे में बोलें ! हर इंसान अच्छी कहानी सुनना पसंद करता है।
इस सिद्धांत के अनुरूप काम करते हुए मैंने फ़ैसला किया कि मैं इन किसानों को यह बताऊँगा कि मैंने अपने जीवन में कितनी मुश्किलों का सामना किया है।
राजनेताओं ने देश की बुरी स्थिति का इस्तेमाल अपने लाभ के लिये किया। इसने उन्हें बहुत बड़ा मौक़ा दिया, ताकि वे अपने विरोधी राजनीतिक दल की असफलतायें, कमियाँ और ग़लतियाँ गिना सकें। डेमोक्रेट्स ने इसे सत्ताधारी रिपब्लिकन पार्टी को दोष देने के अवसर के रूप में देखा। जैसी की संभावना थी, बदले में रिपब्लिकन ने ‘‘डेमोक्रेट प्रशासन’’ पर दोष मढ़ा, ‘‘जिसने समस्या पैदा की थी।’’ उनका कहना था कि रिपब्लिकन सरकार को यह समस्या विरासत में मिली है।
हर व्यक्ति समस्या के लिये दूसरों को दोष दे रहा था–कोई भी समस्या को दूर नहीं कर रहा था !
समस्याएं बनी रहीं। वे बढ़ती गईं। मंदी पूरे देश में तेज़ रफ़्तार से फैली, जब तक कि हर आदमी इसकी चपेट में नहीं आ गया। कोई भी इससे नहीं बच पाया।
क्रिस्टल कैथेड्रल धर्मसमुदाय के धर्मगुरु और नेशनल टेलीविज़न मिनिस्ट्री के प्रमुख होने के नाते व्यक्तिगत रूप से मैंने भी इसे झेला। हमारी टेलीविज़न धर्मसेवा हर सप्ताह 169 टेलीविज़न स्टेशनों पर प्रसारित हो रही थी। हमारे लिए पाँच सौ व्यक्ति काम करते थे, जिन्हें हम तनख़्वाह देते थे और हमारा सालाना बजट दो करोड़ डॉलर से अधिक था। हमारे काम की लागत नाटकीय रूप से लगातार बड़ने लगी। बाक़ी अमेरिकावासियों की तरह हम भी आर्थिक मुश्किलों के दौर का सामना कर रहे थे।
कोई भी इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि देश के सामने समस्याएं थीं। परंतु सबसे बड़ी समस्या इस आर्थिक समस्या के प्रति हमारे नज़रिये की थी। नकारात्मक नज़रिया प्लेग की तरह समाज के हर वर्ग में फैल गया। नकारात्मक चिंतन के संक्रमण से ख़ुद को सुरक्षित रख पाना आसान नहीं था, क्योंकि नकारात्मक बातें हर तरफ़ थीं–मित्रों तथा अजनबियों से बातचीत में, टेलीविज़न और रेडियो समाचारों में।
नकारात्मक चिंतन जंगल में आग की तरह फैला, क्योंकि मंदी के दौर में नकारात्मक प्रतिक्रिया करने की प्रवृत्ति होती है। एक बार जब कोई जीव, व्यवसाय, जीवन या देश नकारात्मक चिंतन के संक्रमण का शिकार हो जाता है, तो फिर वह संक्रमण मस्तिष्क, हृदय तथा आत्मा को दीमक की तरह कुतरता रहता है और अंततः यह दीमक भावनात्मक समर्थन तंत्र को चट कर जाती है।
इसी राष्ट्रीय मनोदशा के माहौल में मैं शिकागो के हिल्टन होटल पहुँचा। मुझे वहाँ पर एक बड़े जनसमुदाय के सामने प्रेरणादायी भाषण देना था।
प्रेरणादायी भाषण देना तथा सफल प्रबंधन के सिद्धांत बताना मेरे लिए नई बात नहीं थी। हर साल मैं अमेरिका के इस छोर से उस छोर तक यात्रा करता हूँ और डॉक्टरों, एक्ज़ीक्यूटिव्ज़, शिक्षाविदों आदि के सामने सौ से अधिक भाषण देता हूँ।
बहरहाल, मैं यहाँ भाषण देने के विचार से ख़ासा उत्साहित था। मेरे श्रोता कृषि उद्योग के सदस्य थे। यह उद्योग आयोवा, मिशिगन, इलिनॉय और मिनेसोटा के मध्य-पश्चिमी राज्यों के कृषि व्यवसाय में संलग्न लोगों का प्रतिनिधित्व करता था। चूँकि मैं आयोवा के किसान परिवार में पैदा हुआ था और पला-बढ़ा था, इसलिये मैं इस भाषण को उन लोगों के साथ रिश्ते की डोर जोड़ने के अवसर के रूप में देख रहा था, जो उसी मिट्टी से आये थे, जिसे मैंने चालीस साल पहले छोड़ा था।
गंभीर दिखने वाले दो लोगों ने भावनात्मक और प्रेरणादायी शाम की मेरी आशा पर तत्काल पानी फेर दिया। उनके काले कॉलर पर सम्मेलन के बिल्ले लगे थे, जिनसे मुझे पता चला कि मुझे इन्हीं लोगों की तलाश थी। उन्होंने दबी आवाज़ से मेरा स्वागत किया, ‘‘डॉ. शुलर ? आने के लिये धन्यवाद।’’
उनके शब्द सुनकर मुझे वे हज़ारों मौक़े याद आ गये, जब मैं किसी विपत्ति या दुर्घटना के वक़्त पहुँचा था। अस्पतालों, मुर्दाघरों, अदालतों और क़ब्रिस्तानों में मैंने ये शब्द सुने हैं, ‘‘आने के लिये धन्यवाद।’’ मैं यह महसूस किये बिना नहीं रह सका कि मैं किसी प्रेरणादायी सम्मेलन के बजाय किसी दुर्घटना स्थल पर आ गया था।
उन दोनों में से कम उम्र का व्यक्ति बोला, ‘‘साढ़े तीन हज़ार लोग आपका भाषण सुनने का इंतज़ार कर रहे हैं।’’
उसका साथी बीच में बोला, ‘‘ये लोग मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं। वे आपकी मज़ेदार कहानियाँ नहीं सुनना चाहते। वे आपको मुँह फाड़कर हँसते हुए नहीं देखना चाहते, जैसा आप अपने टी.वी. प्रोग्राम में करते हैं। वे यह नहीं चाहते कि आप उनकी पीठ थपथपाकर यह खोखला वायदा करें कि ‘सब कुछ ठीक हो जायेगा।’’
इसके बाद वे दोनों एक-दूसरे से सटकर मेरे सामने इस तरह खड़े हो गये, मानो वे मुझे मंच पर पहुँचने से रोकना चाहते हों। पहला आदमी बोला, ‘‘यह सही है, डॉ. शुलर। इन लोगों के खेत छिन रहे हैं। इनके व्यवसाय दिवालिया हो रहे हैं। इनके विवाह और परिवार पर भयानक दबाव पड़ रहा है। इन्हें मदद की ज़रूरत है। और बाक़ी किसी भी चीज़ से ज़्यादा ज़रूरत इन्हें आशा की है। कृपया इन्हें आशा प्रदान करें।’’
यह सलाह देने के बाद उन्होंने ध्वनि-प्रबंधक की तरफ़ इशारा किया, जिसने मेरे सूट में माइक्रोफ़ोन लगाया। इसी समय मुझे सुनाई दिया कि पतली दीवार के उस पार मंच पर मेरा परिचय दिया जा रहा था, ‘‘देवियों और सज्जनो, यह मेरा सौभाग्य है कि मैं आज के हमारे मुख्य वक्ता का परिचय दूँ। वे हैं डॉ. रॉबर्ट शुलर, विश्वप्रसिद्ध क्रिस्टल कैथेड्रल के धर्मगुरु। यह सुंदर इमारत दो करोड़ डॉलर की लागत से बनी थी और इसे लगभग कर्ज़-मुक्त समर्पित किया गया। कोई भी धर्मगुरु या धर्मोपदेशक अमेरिका या दुनिया के इतने अधिक लोगों को संबोधित नहीं करता, जितना गार्डन ग्रव, कैलिफ़ोर्निया के डॉ. रॉबर्ट शुलर करते हैं। मुझे डॉ. रॉबर्ट शुलर का स्वागत करने में ख़ुशी हो रही है, जो विश्व के सर्वाधिक सफल व्यक्तियों में से एक हैं। आइये, तालियों से उनका स्वागत करें !’’
ज़ोरदार तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैं मंच पर चढ़ा और निराश लोगों के समूह के सामने खड़ा हो गया। साढ़े तीन हज़ार लोग अपनी जगह पर खड़े होकर मेरे स्वागत में तालियाँ बजा रहे थे। बड़ा हॉल खचाखच भरा था।
मन ही मन मैं काँप रहा था। जिस भाषण को मैंने जतन से तैयार किया था, वह अब बेकार हो चुका था। जिन तीन चुटकुलों को मैंने अपने आनंद और ‘‘श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने’’ के लिये तैयार किया था, वे अब किसी काम के नहीं थे।
मैं मंच पर चहलक़दमी करने लगा और मुझे ज़रा भी पता नहीं था कि मैं इन परेशान लोगों से क्या कहूँगा। मैं मंच के इस छोर से उस छोर तक चुपचाप टहलता रहा और अपने विचार एकत्रित करने की कोशिश करता रहा। मैंने श्रोताओं की आँखों में देखा। मुझे वे शब्द याद आ गये, जो मेरा स्वागत करने वाले लोगों ने कहे थे। मैंने फ़ैसला किया कि मैं एक सवाल पूछकर अपनी स्थिति सुदृढ़ करूँ।
‘‘मुझे बताया गया है कि आप मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं। क्या यह सही है ?’’
इस सवाल ने मुझे विचारों को तरतीब से जमाने के लिये थोड़ा सा समय दे दिया। इस तरह का छोटा सा विराम किसी सार्वजनिक वक्ता की जिंदगी बचा सकता है।
मैं इधर से उधर टहलता रहा और यह अभिनय करता रहा कि मुझमें अच्छी तरह से तैयार वक्ता का आत्मविश्वास था।
मुझे दिख रहा था कि मेरे शुरुआती सवाल ने श्रोताओं का ध्यान खींच लिया था–शायद मेरे उन तीन मज़ेदार चुटकुलों से भी अधिक, जिन्हें मैंने सावधानी से तैयार किया था और जो मेरी जेब में रखे थे।
उसके बाद मैंने दिल से भाषण दिया। इसमें कई नये विचार उभरकर आये। मैं दिल से इन लोगों की मदद करना चाहता था, उनके मन में आशा जगाना चाहता था, इसलिये मैंने इन लोगों की तात्कालिक समस्याओं तक ही सीमित रहने का फ़ैसला किया। ये लोग उस उद्योग के सदस्य थे, जो हमारे देश की सेहत और कल्याण के लिए अनिवार्य था। यह उद्योग अमेरिका के ब्रेडबास्केट का हृदय था। बाज़ारों में और हमारे घर की मेज़ों पर रखा भोजन इन्हीं किसानों की कड़ी मेहनत और बुद्धि की बदौलत आता था।
मुझे बरसों पहले का वह समय याद आया, जब मुझे होप कॉलेज, हॉलैंड, मिशिगन की स्नातक कक्षाओं में सार्वजनिक संभाषण, भाषण, वादविवाद आदि का प्रशिक्षण दिया गया था। इसके बाद वेस्टर्न थियोलॉजिकल सेमिनरी में भी मुझे प्रवचन तैयार करने का प्रशिक्षण मिला था। मैं जानता था कि सबसे प्रभावशाली भाषण प्रवचन नहीं, प्रमाण होता है। मूलभूत रूप से इस सिद्धांत का अर्थ है : अगर आपका भाषण तैयार नहीं है, तो आप हमेशा अपनी कहानी बता सकते हैं।
अगर आपके जीवन में रोमांच, चुनौती, संकट और संकल्प के पल रहे हैं, तो उनके बारे में बोलें ! हर इंसान अच्छी कहानी सुनना पसंद करता है।
इस सिद्धांत के अनुरूप काम करते हुए मैंने फ़ैसला किया कि मैं इन किसानों को यह बताऊँगा कि मैंने अपने जीवन में कितनी मुश्किलों का सामना किया है।
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लोगों की राय
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